2025 Bihar Vidhan Sabha Chunav: Narendra Modi ke liye Vikas, Jaati aur Netrutva ka Nirnayak Parikshan
2025 बिहार विधानसभा चुनाव: नरेंद्र मोदी के नेतृत्व के लिए आर्थिक और राजनीतिक लिटमस टेस्ट
परिचय
6 नवंबर 2025 को आरंभ हो रहा बिहार विधानसभा चुनाव केवल एक राज्य-स्तरीय राजनीतिक प्रक्रिया नहीं, बल्कि भारत की संघीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में नीति-निर्धारण, आर्थिक असमानता और नेतृत्व की स्वीकार्यता का लिटमस टेस्ट बन गया है।
243 विधानसभा सीटों, 7.5 करोड़ मतदाताओं और दो चरणों में फैले इस चुनाव के परिणाम न केवल नीतीश कुमार की जेडीयू–भाजपा गठबंधन सरकार के भविष्य को तय करेंगे, बल्कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तीसरी पारी में उनकी राष्ट्रीय लोकप्रियता, “डबल इंजन विकास मॉडल” की स्वीकार्यता और विपक्षी एकजुटता की संभावनाओं की दिशा भी निर्धारित करेंगे।
बिहार का राजनीतिक भूगोल और सामाजिक संरचना भारत के लोकतांत्रिक चरित्र की प्रयोगशाला रही है — जहां जाति, वर्ग, धर्म और क्षेत्रीय पहचानें बार-बार नए राजनीतिक समीकरण रचती हैं। इस बार भी महंगाई, बेरोजगारी, पलायन, बुनियादी ढांचे की कमी और केंद्र–राज्य संबंधों में असमानता जैसे मुद्दे मतदाता विमर्श के केंद्र में हैं।
आर्थिक परिप्रेक्ष्य: विकास के बावजूद स्थायी गरीबी का द्वंद्व
भारत के तेजी से बढ़ते GDP और वैश्विक शक्ति बनने की महत्वाकांक्षाओं के बीच बिहार आर्थिक रूप से अभी भी पिछड़े राज्यों की श्रेणी में आता है। नीति आयोग (2024) के अनुसार, बिहार की प्रति व्यक्ति आय मात्र ₹54,000 है — जो राष्ट्रीय औसत ₹1,70,000 का एक-तिहाई भी नहीं। यह असमानता न केवल आय में, बल्कि अवसरों, निवेश, और बुनियादी सेवाओं की पहुंच में भी झलकती है।
राज्य का 34.7% परिवार आज भी प्रतिदिन ₹160 से कम पर जीवन-यापन कर रहा है।
कृषि क्षेत्र में 60% से अधिक आबादी लगी है, किंतु यह क्षेत्र अत्यधिक वर्षा-निर्भर और अल्प-उत्पादक है।
औद्योगीकरण की अनुपस्थिति, अविकसित MSME सेक्टर और कमजोर सेवा क्षेत्र राज्य की संरचनात्मक जड़ता को उजागर करते हैं।
विनिर्माण का राज्य GDP में योगदान केवल 18% है जबकि राष्ट्रीय स्तर पर यह 25% के करीब है।
मुद्रास्फीति और बेरोजगारी ने ग्रामीण परिवारों की आर्थिक असुरक्षा को और बढ़ाया है।
भारतीय रिज़र्व बैंक (2025) के अनुसार, ग्रामीण बिहार में खाद्य व ईंधन मुद्रास्फीति 8% के आसपास बनी रही।
इससे असंगठित क्षेत्र के मजदूरों की वास्तविक आय घटी है, जबकि युवाओं में बेरोजगारी 19% तक पहुँच गई है।
परिणामस्वरूप, पलायन — जो दशकों से बिहार की सामाजिक-आर्थिक नियति बन चुका है — अभी भी जारी है।
करीब 25 लाख बिहारी मजदूर दिल्ली, मुंबई, पंजाब और गुजरात जैसे राज्यों में अस्थायी रोजगार की तलाश में हैं।
राजनीतिक विमर्श में अर्थशास्त्र की उपस्थिति
महागठबंधन (राजद–कांग्रेस–वाम) ने इन आर्थिक असंतुलनों को अपने अभियान का केंद्रीय विषय बनाया है।
उनका घोषणापत्र “महंगाई हटाओ, रोजगार लाओ” के नारे पर केंद्रित है — जिसमें
- 10 लाख सरकारी नौकरियों,
- महिलाओं के लिए ₹2,500 मासिक भत्ता,
- और स्थानीय उद्योग प्रोत्साहन योजनाओं का वादा है।
दूसरी ओर, एनडीए लखपति दीदी योजना, PM Awas, जल जीवन मिशन, बिजली व सड़क विस्तार जैसी उपलब्धियों को प्रचारित कर रहा है।
फिर भी, ग्रामीण मतदाताओं में यह प्रश्न गूंज रहा है कि —
“क्या विकास की नीतियाँ ऊपर से नीचे तक पहुँची हैं, या केवल राजनीतिक विमर्श का हिस्सा बनकर रह गई हैं?”
बुनियादी ढांचा और मानवीय विकास की कमी
बिहार की सबसे बड़ी चुनौती केवल आर्थिक नहीं, बल्कि संस्थागत अक्षमता भी है।
शिक्षा, स्वास्थ्य, परिवहन और शहरीकरण के क्षेत्र में आंकड़े सुधार की सीमित गति को दिखाते हैं।
शिक्षा क्षेत्र की वास्तविकता
UDISE+ रिपोर्ट (2024–25) के अनुसार —
- बिहार में शिक्षक–छात्र अनुपात 48:1 है (राष्ट्रीय मानक 30:1),
- 22% स्वीकृत पद रिक्त हैं,
- 40% विद्यालयों में विज्ञान या गणित के प्रशिक्षित शिक्षक नहीं हैं।
शिक्षा गुणवत्ता की यह गिरावट युवाओं के पलायन और नौकरी की तैयारी संस्कृति (कोचिंग आधारित शिक्षा) को और गहरा कर रही है।
पटना, मुजफ्फरपुर और दरभंगा जैसे शहरों में कोचिंग उद्योग ने सरकारी शिक्षा की विफलता की जगह ले ली है।
स्वास्थ्य अवसंरचना का अभाव
राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन (2025) के अनुसार —
- बिहार में प्रति 1,000 जनसंख्या पर केवल 0.4 अस्पताल बेड हैं (राष्ट्रीय औसत 1.3),
- डॉक्टर-जनसंख्या अनुपात 1:18,000 है,
- मातृ मृत्यु दर (MMR) 150 और शिशु मृत्यु दर (IMR) 38 प्रति 1,000 है — दोनों ही राष्ट्रीय औसत से अधिक।
राज्य का प्राथमिक स्वास्थ्य नेटवर्क बाढ़ और मानसून के दौरान लगभग ठप हो जाता है।
स्वास्थ्य बीमा योजनाओं (जैसे आयुष्मान भारत) की पहुँच सीमित है, विशेषकर ग्रामीण इलाकों में।
केंद्रीय योजनाएँ और कार्यान्वयन का विरोधाभास
हालांकि जल जीवन मिशन और PM आवास योजना जैसे कार्यक्रमों ने ठोस उपलब्धियाँ दी हैं —
- 2019 में जहाँ केवल 2% ग्रामीण घरों में नल जल उपलब्ध था, 2025 तक यह 96% हो गया है।
- लगभग 1.2 करोड़ पक्के मकान स्वीकृत हुए।
फिर भी CAG रिपोर्ट (2024) बताती है कि प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना की 38% परियोजनाओं में लागत वृद्धि या अधूरापन पाया गया।
विकास की कहानी यहाँ “आंशिक सफलता” और “प्रशासनिक जटिलता” का मिश्रण बन जाती है।
महागठबंधन इसे “विकास का झूठ” कहता है, जबकि एनडीए इसे “प्रक्रियागत देरी” बताकर केंद्रीय सहायता की सीमाएँ गिनाता है।
जाति समीकरण और राजनीतिक गणित
बिहार में चुनाव बिना जाति के संभव नहीं।
भले ही नरेंद्र मोदी “सबका साथ, सबका विकास” की बात करते हैं, पर राजनीतिक वास्तविकता अभी भी जातीय गणित से निर्धारित होती है।
- एनडीए का प्रमुख आधार: ऊँची जातियाँ + अति पिछड़ा वर्ग (EBC) + गैर-यादव OBC
- महागठबंधन का आधार: यादव + मुस्लिम + दलित + महादलित + कुछ पिछड़ी जातियाँ
2024 में परिसीमन के बाद 35 सीटों की संरचना बदली, जिससे EBC और गैर-यादव वर्गों का प्रभाव बढ़ा — यह एनडीए के पक्ष में जा सकता है।
हालाँकि, नीतीश कुमार की बदलती निष्ठाएँ और तीसरे दशक की एंटी-इनकंबेंसी भाजपा के लिए चुनौती हैं।
मोदी फैक्टर: जाति से परे करिश्मा या सीमित असर?
2020 के विधानसभा चुनाव में मोदी की व्यक्तिगत लोकप्रियता ने एनडीए को संकीर्ण बहुमत दिलाया था।
उनकी 40 से अधिक रैलियों ने जाति समीकरणों को पार करते हुए “राष्ट्रीय नेतृत्व बनाम स्थानीय विकल्प” का विमर्श रचा।
2025 में भाजपा फिर उसी मॉडल पर काम कर रही है —
- मोदी की रैलियाँ,
- “गरीब कल्याण मेलों” का आयोजन,
- और “डबल इंजन सरकार” की उपलब्धियों का डिजिटल प्रचार।
लेकिन मतदाता अब अधिक व्यावहारिक हैं।
नीतीश कुमार की लंबी राजनीतिक यात्रा, शिक्षा–स्वास्थ्य की स्थिति, और भ्रष्टाचार के आरोपों ने भाजपा के “विकास मॉडल” पर प्रश्नचिह्न लगा दिया है।
हाल के Axis My India सर्वेक्षण (अक्टूबर 2025) के अनुसार —
- एनडीए का वोट शेयर 44–48% के बीच,
- महागठबंधन 40–43% पर,
- 8–10% मतदाता स्विंग वोटर के रूप में निर्णायक भूमिका में हैं।
संघवाद, नीति और लोकतंत्र के संकेत
बिहार चुनाव केवल राज्य की राजनीति नहीं, बल्कि केंद्र–राज्य संबंधों और संघीय संतुलन के परीक्षण का भी मंच है।
एनडीए इसे “सहयोगी संघवाद की मिसाल” बताता है — जहाँ केंद्र की नीतियाँ राज्य को विकास की मुख्यधारा में लाती हैं।
वहीं विपक्ष तर्क देता है कि “केंद्र की नीतियाँ राज्य की स्वायत्तता को सीमित करती हैं”, और विकास को राजनीतिक निष्ठा से जोड़ा जाता है।
यह द्वंद्व भारत के संघीय ढांचे की आत्मा को झकझोरता है:
क्या विकास केवल केंद्रीय अनुदानों से संचालित हो सकता है, या राज्यों को अपनी नीति स्वतंत्रता चाहिए?
नैतिक और नीति-विश्लेषणात्मक आयाम
बिहार चुनाव नीति-निर्माण के नैतिक प्रश्न भी उठाता है:
- क्या कल्याणकारी योजनाएँ वोट बैंक का साधन बन गई हैं?
- क्या जाति आधारित राजनीति सामाजिक न्याय की गारंटी है या लोकतांत्रिक गतिरोध?
- और क्या मोदी की “विकास कथा” स्थानीय शासन की जवाबदेही को धुंधला कर रही है?
विकास के आंकड़े तभी सार्थक हैं जब वे मानव गरिमा, शिक्षा, स्वास्थ्य और अवसर की समानता में रूपांतरित हों।
बिहार के संदर्भ में, नीति और राजनीति के बीच यह अंतराल लोकतंत्र की सबसे बड़ी चुनौती है।
निष्कर्ष: बिहार से परे भारत का प्रतिबिंब
बिहार विधानसभा चुनाव का परिणाम न केवल राज्य के राजनीतिक समीकरण को बदलेगा, बल्कि राष्ट्रीय राजनीति में दूरगामी प्रभाव छोड़ेगा।
अगर एनडीए को स्पष्ट बहुमत मिलता है, तो यह मोदी के “विकास प्लस हिंदुत्व” मॉडल की वैधता को पुष्ट करेगा।
यदि परिणाम त्रिशंकु या विपक्षी पलटवार का होता है, तो यह
- 2027 उत्तर प्रदेश चुनाव,
- और 2029 लोकसभा चुनाव से पहले
एक नए राजनीतिक पुनर्संरेखन की भूमिका तैयार कर सकता है।
बिहार भारत का सूक्ष्म संस्करण है — जहाँ विकास और असमानता, परंपरा और परिवर्तन, केंद्र और राज्य, सभी एक साथ गतिशील हैं।
यह चुनाव अंततः उस विरोधाभास को उजागर करता है कि —
“जब भारत वैश्विक शक्ति बनने की आकांक्षा रखता है, तब भी उसके कुछ राज्य अब भी बुनियादी गरिमा, रोजगार और सामाजिक समानता के संघर्ष में हैं।”
बिहार का जनादेश केवल सरकार तय नहीं करेगा, बल्कि यह बताएगा कि भारत की लोकतांत्रिक चेतना विकास के नारे से आगे मानव विकास के मूल्यों को कितना अपनाती है।
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